बिहार में शराबबंदी: राज्य की सबसे बड़ी विफलता बनी नीतीश कुमार की नीति

पटना। बिहार में शराबबंदी लागू हुए कई साल बीत चुके हैं, लेकिन इसके दुष्परिणाम राज्य के लिए अभिशाप बनते जा रहे हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सबसे चर्चित नीतियों में शामिल शराबबंदी को आज उनकी सबसे बड़ी विफलता भी माना जा रहा है। आंकड़ों और जमीनी रिपोर्ट्स के मुताबिक, शराबबंदी के शुरुआती छह महीनों में ही इसके नकारात्मक प्रभाव दिखने लगे थे।
शराबबंदी लागू होने से सरकार को हजारों करोड़ रुपये का राजस्व नुकसान हुआ। यह पैसा अब अपराधियों के हाथों में पहुंच गया है, जिससे राज्य में संगठित अपराध की नई लहर आ गई है। छोटे-छोटे चोर या असामाजिक तत्व अवैध शराब कारोबार में लगकर डॉन बन गए हैं। पुलिस व प्रशासन भी इन गिरोहों पर काबू पाने में नाकामयाब साबित हो रहा है। थानों तक में भ्रष्टाचार पहुंच गया है, और गांव-गांव में अवैध शराब का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है।
स्थानीय सूत्रों के अनुसार, अब गांव में शराब सप्लाई करने वाले लोग भी 50 हजार रुपये महीना तक कमा रहे हैं। इसी के साथ युवाओं में स्मैक और अन्य नशे का चलन बढ़ रहा है, जो पहले कम ही देखने को मिलता था। सूत्र बताते हैं कि नकली और जहरीली शराब पीने से अपाहिज होने वालों और मरने वालों की असली संख्या खबरों से कई गुना ज्यादा है।
इसके इतर, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी शराबबंदी की नीति पर अड़े हुए हैं, और इसे रद्द करने के सवाल पर लगातार अनिश्चितता बनी हुई है। जानकारों का कहना है कि राज्य में संगठित अपराध अब शराबबंदी से कमाए गए पैसे के बल पर इतना ताकतवर हो गया है कि उसे सत्ता के संरक्षण की भी जरूरत नहीं है।
विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार में शराब की खपत शुरू से ही देश के अन्य राज्यों की तुलना में काफी कम थी, लेकिन एक नैतिक अभियान के तहत लागू की गई शराबबंदी पूरे राज्य के लिए संकट बन गई है। आगामी चुनावों में भी इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा नहीं हो पा रही है।
अब सवाल यह है कि बिहार इस अभिशाप से कब और कैसे मुक्त होगा? फिलहाल, इसका जवाब तलाशना मुश्किल नजर आ रहा है।